श्रीराम- तुलसी की नजर में

व्यक्ति नहीं, वृत्ति को प्राप्त संज्ञा हैं राम

भारतीय जनमानस के लोकमंगल में जो सबसे प्रचलित शब्द है वह राम है| समय के सापेक्ष विद्वानों ने इसकी‌ व्याख्या अपने अनुसार की है| धार्मिक ग्रन्थों के श्रृंखला में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस ने सामान्य जन के चित्त पर विशेष छाप छोङा है| अमिट छाप के बाद भी जो प्रश्न बांकि रह जाता है कि "राम" कौन हैं? क्या वह दशरथ पुत्र हीं हैं या फिर कोई विशिष्ट पहचान उनसे जुङी है|वास्तव में श्रीराम स्वयं हीं परम् ब्रह्म हैं इसलिए तो तुलसीदास ने लिखा "राम ब्रह्म परमारथ रूपा।"लेकिन भारत में ब्रह्म के स्वरूप को लेकर भी सबकी अपनी धारणा है इसलिए इसे और सरल करते हुए वह लिखते हैं

"अविगत अलख अनादि अनूपा।" जिसका अर्थ यह है कि जिसका कोई गत न हो, जो कभी बीत न जाये, जो समय की धाराओं से भी परे है|और आज विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में कोई भी भौतिक वस्तु समय से परे नहीं हो सकता |इससे तुलसी यह स्पष्ट कर रहे हैं कि वह किसकी बात कर रहे हैं| तो फिर यह बात संघर्ष पैदा करती है कि हम किसकी पूजा करते हैं|चूंकि प्रकृति त्रिगुणात्मक है और हमारी इंद्रियाँ स्थूल भाव ग्रहण करती है इसलिए हमें गुण या भाव ज्यादा सहजता से समझ में आते हैं|

नये लोगों, बच्चों,अल्पज्ञों के प्रवेश मात्र के लिए और उनके भीतर परमसत्य के प्रति रूचि जगाने के लिए परिचय ऐसे करवाया जाये जैसे किसी साकार की बात हो|जिससे मन में उन मूल्यों को धारण कर विकास की अंतर्यात्रा शुरू हो सके|इसलिए संतों ने सुझाया कि शुरुआत के लिए सगुण आवश्यक है लेकिन यदि केवल हम रूपमात्र में हीं बंध जाये और मर्म से वंचित रहेंगे तो उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो सकेगी| इसलिए आवश्यक है कि गुढ़ रहस्यों के लिए भी तार्किक अध्ययन का क्रम चलता रहे|श्रीराम उदात्त हैं। उनका स्मरण, उनका नाम, उनका स्पर्श औदात्त्य से भर देता है। यह उदात्त भाव मानवता को ज्योतिर्मय बनाता है। दीपावली का दीपक भी इसी अंतर्सत्य की ओर उन्मुख होकर ज्योतिर्मय होने का संदेश है| जिससे हम अपने रोजमर्रा के अनुभव में राम से मिल सकें क्योंकि इसका अर्थ हीं है जो कण कण में रमा है|

बात यदि अब भी स्पष्ट नहीं हुई हो तो आगे तुलसी कहते हैं कि "सकल विकार रहित गतभेदा", मतलब यह है कि प्रकृति के अंदर सभी वस्तुओं में गुण -दोष विद्यमान हैं, इन्हें देखने का दृष्टिकोण द्रष्टा पर निर्भर करता है परंतु इसकी कोई भी बात इसे प्रकृति से परे नहीं ले जाती है | आध्यात्मिक अर्थों में पुरूष यानि आत्मा को प्रकृति परे: कहा गया है, और वह आत्मा हीं ब्रह्मस्वरुप है| आत्मा हीं है जो इन सभी गुण, दोष, भेद आदि से पूर्णतः परे है और ब्रह्म की व्याख्या भी इसी रूप में की जाती है| प्राचीन काल में ऋषि शब्द जानने वालों के लिए प्रयोग होता था वह जानने की वैज्ञानिक पद्धति के सृजनहार थे| वेदों और शास्त्रों में वर्णित "नेति-नेति" (न्+इति=यह नहीं है) के आधार पर तुलसी ने यह तक कह दिया है कि यदि आप पिछले तीन कसौटियों पर इसके रूप से परिचित नहीं हो रहे तो वैज्ञानिक मार्ग का अनुसरण करते हुए वैदांतिक सिद्धांत "कहि नित नेति निरूपहिं वेदा" का जिक्र कर दिया है| यह उपनिषद में दिये गये ब्रह्मरूप की हीं शब्दश: चर्चा है | और नेति-नेति के मार्ग से हम पकड़ कर नहीं कह सकते हैं कि बस एकमात्र यही अवस्था पूर्ण है क्योंकि वह सदैव गतिमान है ,वह इन सब व्याख्याओं से परे है | यह सब तो केवल इंगित करते हैं | श्रीराम मानवीय आधारभूत कल्पनाओं की श्रृंखला से परे स्वतंत्र अवस्था में अक्षर ब्रह्म हैं|

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