
भोर और सांझ के दुपहिये जीवन से दूर,
अपने अनकहे भटकन की छोर के आस में,
चलता रहा हूँ क्षितिज को अपनी सीमा मानकर,
आकाश हीं जब बन चुका है आंगन, मैं सिमटना चाहता हूँ, चाहता हूँ इस पहेली का उत्तर,
अनंत के अनुगामी बनने की यात्रा में, सर्वस्व अर्पण कर, माँ.... विश्रान्ति का वह क्षण तुम्हारे गोद में, किनारे बैठे हुए बस इसी आस में,
जैसे भगीरथ के ताप से कभी यूँ ही भावना के आंचल पसार , उतर आयी सकल संसार में धोने पाप को,
अश्रुजल से हो सिचिंत दे रहा शाश्वत पुकार हूँ,
मौन के अंतर्नाद में अवस्थित मेरा विलीन स्वीकार कर
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मंथन
भोर और सांझ के दुपहिये जीवन से दूर,
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Good morning
Avinash Thakur Me Liya
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